ब्रिक्स समूह (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) ने हाल ही में अपनी डी-डॉलरीकरण रणनीति के संबंध में एक महत्वपूर्ण बयान दिया। इस पहल का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम करना और सदस्यों के बीच स्थानीय मुद्राओं के उपयोग को मजबूत करना है।
यह घोषणा रणनीतिक क्यों है?
- डॉलर पर निर्भरता कम करना: ब्रिक्स देश डॉलर में उतार-चढ़ाव के प्रभाव से बचने के लिए अपने भंडार और लेनदेन में विविधता लाना चाहते हैं।
- वित्तीय विकल्प: वैकल्पिक भुगतान प्रणालियों की स्थापना और स्थानीय मुद्राओं के बढ़ते प्रयोग से वैश्विक व्यापार का स्वरूप बदल सकता है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
- स्थानीय मुद्राओं को मजबूत करना: डॉलर के उपयोग को सीमित करके, ब्रिक्स देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को स्थिर करने और अमेरिकी प्रतिबंधों के प्रति अपनी संवेदनशीलता को कम करने की आशा रखते हैं।
- डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती: यह निर्णय बहुध्रुवीय वित्तीय प्रणाली की ओर संक्रमण को तीव्र कर सकता है, जहां अन्य मुद्राएं अधिक महत्वपूर्ण हो जाएंगी।
डी-डॉलरीकरण के अवसर और जोखिम
अवसर :
- ब्रिक्स देशों की वित्तीय स्वायत्तता में वृद्धि की गई, जिससे उन्हें पश्चिमी वित्तीय प्रणाली से गुजरे बिना व्यापार करने की अनुमति मिली।
- मुद्रा रूपांतरण और अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग शुल्क से जुड़ी लागत में कमी।
जोखिम:
- अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों के समक्ष स्थानीय मुद्राओं की संभावित अस्थिरता।
- संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भू-राजनीतिक तनाव, जो डॉलर को आर्थिक वर्चस्व के लिए एक रणनीतिक उपकरण के रूप में देखता है।
निष्कर्ष: क्या नया वित्तीय संतुलन नजर आ रहा है?
ब्रिक्स की घोषणा अधिक विविधीकृत मौद्रिक प्रणाली की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यदि यह रणनीति सफल हो जाती है, तो इससे वैश्विक आर्थिक गतिशीलता में व्यापक परिवर्तन आ सकता है तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में डॉलर का प्रभाव कमजोर हो सकता है।